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उत्तराखंड की चमत्कारी भस्म का रहस्य

उत्तराखंड की चमत्कारी भस्म का रहस्य : उत्तराखंड देवी देवताओं की वो पावन भूमि है जहां मान्यताओं और आस्था का अद्भुत उदाहरण आपको पहाड़ों में अनगिनत मिलेंगे। यहां के हर गांव की , हर धाम की अपनी महत्ता है उत्तराखंड इसीलिए करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां माता …

By Hindi News 24x7 - News Editor
Last Updated: 15 Oct, 2024
उत्तराखंड की चमत्कारी भस्म का रहस्य  

उत्तराखंड की चमत्कारी भस्म का रहस्य : उत्तराखंड देवी देवताओं की वो पावन भूमि है जहां मान्यताओं और आस्था का अद्भुत उदाहरण आपको पहाड़ों में अनगिनत मिलेंगे। यहां के हर गांव की , हर धाम की अपनी महत्ता है उत्तराखंड इसीलिए करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां माता पार्वती और धारी देवी के सिद्धपीठ भी हैं और शिव के शिवालय और मां गंगा का मायका भी। अद्भुत और चमत्कारों से भरे पहाड़ में बसे चमोली जिले में एक ऐसा तीर्थस्थल हैं, जहां माता का मंदिर और भोलेनाथ की धुनी एक साथ मौजूद हैं। आपको देश मे अनेक ऐसे मंदिर देखने पढ़ने सुनने को मिल जाएंगे जहां पौराणिक मान्यताओं की रहस्यमयी कथाएं आपको श्रद्धा से नमन करने को विवश कर देंगी। लेकिन इस मंदिर में जलने वाली धुनी की भस्म को लोग चमत्कारी मानते हैं। बुजुर्गों का मानना है कि सच्ची आस्था से इस भस्म को माथे पर लगाने से छल टोना टोटका और बुरी शक्तियों का भय दूर हो जाता है।

इस राख को लेने के लिए न सिर्फ चमोली जिले से बल्कि सात समंदर पार रहने वाले NRI उत्तराखंडी भी online बुकिंग कराते हैं और इस शक्तिपीठ की अदभुत भस्म को मंगाते हैं। चमोली जिले के चोपता गांव में सिद्धपीठ राजराजेश्वरी गिरिजा भवानी का भव्य मंदिर है। इसी मंदिर के बगल में गुरु गोरखनाथ की धुनी है। इसे भगवान शिव का स्थान माना जाता है। माता का मंदिर और शिव की धुनी एक साथ होने के कारण इस तीर्थस्थल की अपनी महत्ता है। इस स्थान को लेकर ऐसी मान्यता है कि चार धाम की स्थापना के बाद मां दुर्गा वृद्ध माता के रूप में धरती पर आईं। उन्होंने चारधाम की यात्रा शुरू की। जिस स्थान पर माता का मंदिर है, वहां माता अंतर्ध्यान हो गईं। जबकि उनके साथ आए सेवक का मुछयाला यानि जलती मशाल यहीं आकर टूट गई।

चमत्कारी भस्म का रहस्य

कहते हैं कि जहां मशाल टूटी वहीं पर गुरु गोरखनाथ जी की धुनी है। तीन साल में एक बार यहां पारंपरिक रूप से एक बड़ा मेला लगता है। नौ दिन तक देवी-देवताओं के पेशवाओं का नृत्य होता है। दूर-दूर से श्रद्धालुओं का जमघट लगता है।ऐसी भी परंपरा है कि धुनी में जलने वाली लकड़ियां साफ सुथरी होनी चाहिए जो लकड़ी सड़ी हो या उसपर कीड़ा लगा हो तो उसे धुनी में नहीं जलाया जाता है। धुनी में लकड़ी जलाने से पहले उसका बाकायदा शुद्धिकरण होता है।इतना ही नहीं केवल व्रत रखा व्यक्ति ही मंदिर के अंदर प्रवेश कर सकता है। हां केवल श्रद्धालुओं को अंदर जाने की अनुमति नहीं होती। पर्यटक हो या भक्त सबको बाहर से ही दर्शन कर भभूती प्राप्त करनी होती है। देवी धाम की महत्ता इतनी है कि विदेशों में रहने वाले उत्तराखंडी प्रवासी भी पोस्ट और ऑनलाइन डिमांड भेजते हैं जिसे मंदिर प्रबंधन विदेशों में भेज देते हैं।

अगर मान्यताओं की ही बात करें तो इसी मंदिर से जुड़ी दूसरी मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपमानित होकर माता सती हवन कुंड में भस्म हो गईं थी तो भगवान शिव उनकी जली हुई देह को लेकर आकाश मार्ग से कैलाश की ओर जाने लगे। मान्यता है कि इस स्थान पर माता की जलती हुई देह का एक हिस्सा गिरा होगा, जिस कारण यहां माता के मंदिर के साथ-साथ धुनी बनी। मान्यताएं जो भी हों, लेकिन आज भी यह मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है।

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